श्री गुरुदेव

भारत की आजादी के दस वर्ष बीत चुके थे। युग नई करवटें ले रहा था, और उस नवल बेला की नीविड़ रात्रि मेें एक शिशु नींद को खोकर बारबार करवट बदल रहा था। जैसे ही उसकी पलकें बन्द होती थी कि मानस पटल पर एक बरगद का वृक्ष उभर आता था और वृक्ष के तले, चबुतरे पर आसीन, एक ट्टषि दृष्टिगोचर होते थे। श्वेत दाढ़ी एवं केश से संयुक्त ट्टषि का मुखमण्डल ध्यानस्थ रहता था। शिशु उन्हें गौर से निहारा करता था। बार-बार ये तेजस्वी साधु कहाँ से आते हैं और कहाँ गायब हो जाते हैं? यही प्रश्न हर बार अनुत्तरित रह जाता था, लेकिन वो साधु महीनों तक आते रहे थे बिना नागा किए । यह प्रश्न पूरे किशोर वयस तक अनुत्तरित रहा । शिशु के अबोध जेहन में और भी कई प्रश्न पहेली बनकर तैरते रहते थे। कई रात तो उसकी आँखें पलकें झपका भी नहीं पाती थी जब दृष्टिपटल से सजी सँवरी देवों की बारात गुजरती थी । दिव्य प्रकाशमान रथ, धनुष, पालकी एवं भिन्न-भिन्न रंगीन पुंजों को निहारते नयन नींद को भूलकर घंटों विस्मित रहते थे। उन्हें निहारना शिशु को अच्छा लगता था, वे दृश्य उसे किसी स्वप्नलोक से सुनहले संसार में खींच ले जाते थे, लेकिन वो समझता था कि सभी लोग इसी प्रकार कुछ न कुछ देखते रहते हैें। अस्तु, उसने किसी से ना पूछा कि वो क्या देखता है और किसी ने ना जाना कि वो क्या देखता है?


अपने कुटुम्ब एवं साथियों के लिए वो एक सामान्य बालक था जिसे सभी प्यार से कपिल पुकारते थे। 11 अगस्त सन् 1951 में, अपने ननिहाल रोसड़ा में जन्मा था श्री बलवीर मिश्र का द्वितीय कुलदीपक जिसकी धवल लौ से आज धरा जगमगा रही है। बताया जाता है कि इनके पूर्वज शाकलद्वीपिय ब्राह्मण प्राचीन काल से ही आयुर्वेद के एकमात्र ज्ञाता के रूप में मान्य रहे हैं और आधुनिक काल तक इनकी ख्याति वैद्य रूप में रही है । श्री कपिल का पैतृक और मातृक वंश भी अपवाद नहीं था, क्रमशः मधेपुर और रोसड़ा में वैद्य-घराने के रूप में प्रसिद्ध था जिसे सेवा और योग्यता के लिए अपने क्षेत्र में अद्वितीय श्रद्धा और सम्मान प्राप्त था। फलतः सुदर्शन शिशु के शैशव ने विपन्नता का कभी दर्शन नहीं किया ।


बचपन से ही इसका अन्तर्मुख स्वभाव शांतिप्रिय था । घर में भगवद्भक्ति के माहौल ने शिशु के पूर्व संस्कार को फलने-फूलने के लिए उचित अवकाश प्रदान किया। अबोध कपिल ने साधुओं के विरागी जीवन को बड़े ही निकट से निहारा था। भक्तिमती पितामही ने बिरजू दास ब्रह्मचारी को श्रद्धा से अपने आवासीय भू-खंड में बसा रखा था और घर में ही थे फकीर चाचा- वर्षों से भगवान के पूजन में एकनिष्ठ आचार्य ब्राह्मण जो अपनी नवविवाहिता पत्नी के मृत्योपरांत पूर्णतः विरक्त, साधनामय जीवन जी रहे थे ।


बचपन से ही इसका अन्तर्मुख स्वभाव शांतिप्रिय था । घर में भगवद्भक्ति के माहौल ने शिशु के पूर्व संस्कार को फलने-फूलने के लिए उचित अवकाश प्रदान किया। अबोध कपिल ने साधुओं के विरागी जीवन को बड़े ही निकट से निहारा था। भक्तिमती पितामही ने बिरजू दास ब्रह्मचारी को श्रद्धा से अपने आवासीय भू-खंड में बसा रखा था और घर में ही थे फकीर चाचा- वर्षों से भगवान के पूजन में एकनिष्ठ आचार्य ब्राह्मण जो अपनी नवविवाहिता पत्नी के मृत्योपरांत पूर्णतः विरक्त, साधनामय जीवन जी रहे थे । फकीर चाचा ने ही किशोर कपिल के कर्ण में गायत्री मंत्र का स्फुरण कराया था। वही थे उनके यज्ञोपवीत संस्कार के आचार्य। दहाई वर्ष में आते-आते जनेऊधारी किशोर को शालिग्राम भगवान की पूजा का मनोवांछित उपहार मिल गया था। पूजा करने में तो शिशु की स्वाभाविक प्रवृति थी। गुड्डा-गुड़िया का खेल खेलते समय ही कपिल, कृष्ण की छोटी मूर्ति ले आया करता था। मूर्ति उसे घर के निकट ही बसे मूर्तिकार केे सौजन्य से मिल जाया करती थी। अपने मनपसंद फूल और पत्ती से सजाया करता था कृष्ण को। और अब तो पूजन के लिए प्रचूर सामग्री उपलब्ध थी। श्रीखंड चन्दन, सुगंधित पुष्प, तुलसीदल, बेलपत्र और नाना प्रकार के नैवेद्य शालिग्राम को सोल्लास समर्पित किये जाने लगे । यह क्रम वर्षों तक रहा और शैशव में करवट लेता प्रेम किशोर वयस के प्रबुद्ध भाव में जगने लगा ।


कृष्ण से प्रेेम कपिल को कब हुआ ये पता न चला। वो तो जन्मजात था। उच्च विद्यालय में प्रवेश करते ही कृष्णाभिलाषी के कण्ठ में गीता समाहित हो चुकी थी और कृष्ण लीला में प्रविष्ट हो चुके थे। धीरे-धीरे शांत-चित्त किशोर और भी अंतर्मुख होता गया और नीले प्रकाश से उसका तन-मन सराबोर होने लगा, बाल रूप में प्रकट हुये कृष्ण सखा से मिलने के लिए। उनकी स्मृति अब भी अक्षुण्ण है योगर्षि के मानस में। कृष्ण अपने उसी मानव रूप में आये थे जिस रूप में उन्होंने आज से लगभग पाँच सहस्त्र साल पहले, धरा पर लीला की थी। किशोर रूप में कृष्ण ने पीली धोती धारण कर रखी थी_ अन्य वस्त्र के रूप में यज्ञोपवीत था मोटे सूत का । कृष्ण के भाल पर तिलक सुशोभित हो रहा था और हाथ में बाँस की बाँसुरी लेकिन उनकी वो विशेषता जिसने किशोर कपिल को सर्वाधिक आकर्षित किया, वो थी उनके गाल का कुछ अधिक ही फूला होना । तभी तो उस बाल सखा को वे अब भी गलफूला कृष्ण कहते हैं ।


कृष्ण की अभिव्यक्ति रूप और प्रकाश दोनों ही के माध्यम से होने लगी। जब कृष्ण प्रकाश के रूप में प्रकट होते थे तो देखते ही देखते कपिल के चारों ओर का वातावरण नीला हो जाता था। आँगन, दीवार, पेड़-पौधाें से लेकर अपना तन-मन भी नील प्रकाश से डूबा लगता था। कण-कण में नील ज्योति एकत्व के समब्रह्म का अर्न्तदर्शन कराने लगती थी। अब भगवद्भक्त के लिए ब्रह्म अपरिचित नहीं थे, वो भगवान के आव-भाव को जानने लगा था। अब उसका हृदय पुकार के मर्म को जानने लगा था_ ब्रह्मानन्द की मस्ती में डूबने का अभ्यस्त हो चुका था वह। अब प्रकृति की हरेक क्रीड़ा में कपिल कृष्ण को ही निहारता था । प्रेम के बोल किशोरावस्था के कोमल कण्ठ से ही कविता के रूप में फूटने लगे। स्वाभाविक रूप से भगवद्भाव की अभिव्यंजना काव्यात्मक होती रही है, और कपिल भी अपवाद नहीं था, लेकिन अल्पायु में ही सूक्ष्मदृष्टि से अवलोकित और हृदय के सहज उद्गार के रूप में निःसृत दिव्य काव्य अब भी सहजता से विस्मय के कारण बन जाते हैं। निःसंदेह ईश्वर ज्ञान के समान कवित्व कला भी कपिल की जन्मजात विधा थी ।


कैशोर्य संक्रमण का काल होता है । शैशव के भाव एवं बोध रूपान्तरित होने लगते हैं किन्तु इस अवस्था में कपिल का भाव रूपान्तरित न हुआ बल्कि पुष्ट हुआ। अन्तर की भक्ति, बोध को पाकर और भी प्रगाढ़ होती गयी। गीता के चिन्तन-मनन से ज्ञान की दिशा निर्देशित होने लगी।


कपिल प्रकृति का प्रेमी था । बचपन में नौका-विहार करना उसके विशेष शौक में शुमार था। उन दिनों कौशिकी के जल से वर्ष के अधिकांश काल में गांव की निचली भूमि जलमग्न रहती थी । डबरा, पोखर एवं लघुनद की परिपूरित जलाधार में नौकायन एक क्रीड़ा भी थी और आवागमन का सर्वसुलभ साधन भी । अपने साथियों के साथ अक्सर ही ‘झिझिर’ खेलने निकल जाया करता था कपिल और प्रकृति की मनोहारी छटा मेें सखा कृष्ण की लीलाओं का चिन्तन करता रहता था । संवेदना के हरेक पहलू में कृष्ण ही मुखरित होते थे। ऐसे ही एक बार नाव पर आनंदित हुए सखाओं की टोली चली जा रही थी और कपिल के हृदय से सावन के मेघ में छुपे कृष्ण की पुकार शब्दों में स्फुरित होने लगी --

"बादल के टुकड़े पे सवार
सखि-सखा संग यमुना किनार
हूँ नाव पर कर लिए हार
आ प्रेम पुकार दूँ गले डार"

कृष्ण भी अपने सखा के संग लुका-छिपी खेल रहे थे । एकबार अपने पुराने महल के साथ ही प्रकट हुए कपिल के समक्ष । द्वापरयुगीन महल के नक्काशीदार गोल खंभों के बीच में अपने नीलाभ तेज को छिपाने का असफल प्रयास कर रहे थे कृष्ण । जैसे ही खंभों में ठेहुनिया देते कृष्ण की मधुर झाँकी, कपिल के प्रेमाभिलाषी नयन को प्राप्त होती वैसे ही खंभों के बीच में छुप जाते थे गोपाल -

"लुका-छिपी खेल रहा है तोता
खंभे की ओट में"

यह क्रम बहुत देर तक चलता रहा। सखा की आँखमिचौली आँसू लाकर ही रूकती थी । भगवान के लिए घण्टों छुप-छुपकर रोया करता था शिशु कपिल । किशोर वयस में भी नयन की धार अविरल बहती रही जिसकी पूर्णाहुति युवावस्था में मधुर भाव की साधना की अश्रुवृष्टि के साथ सम्पन्न हुयी । अस्तु, कपिल का बचपन एवं कैशौर्य पूर्णतः कृष्णमय रहा। हालाँकि बचपन में वह कबीर की विचारधारा से भी प्रभावित रहा। कबीर के निर्गुण राम में आस्था, गीता के पुरूषोत्तम भगवान की धारणा में सहायक रही, लेकिन कृष्ण की नील ज्योति का आकर्षण कपिल के लिए सर्वाेपरि रहा। अक्सर भृकुटि मध्य में नीले प्रकाश को निहारा करता था वह, जो नील प्रकाश सर्वत्र विस्तृत होकर जगमगाने लगता। एकबार उसने अपने पड़ोसी, जो कबीर मत के अनुयायी थे, से पूछा कि साहब का रंग कैसा होता है ? उन्होंने कहा- सफेद, साहब बगुले के समान सफेद ज्योति वाले हैं। लेकिन शिशु को उनका उत्तर संतुष्टिकारक नहीं लगा । उनकी अनुभूति में तो साहब नीले रंग के थे, उसने समझा कि ये आचार्य कुछ देखते है नहीें, बस किताबी बात बोलते हैं । उसकी नजर में साधना का मार्ग स्पष्ट हो चुका था, सिद्धि का स्वरूप स्पष्ट हो गया था, उसमें किंचित संदेह की भी गुंजाइश नहीं थी -

"योगी हो कपाल माहिँ
परम प्रकाश निहारे हैं
साधन के साथ-साथ
पद-निर्वाण पावै हैं ।"

राम और कृष्ण दोनों ही हिन्दू मानस के श्रद्धा स्तंभ रहे हैं । कपिल की श्रद्धा भी बाल्यकाल से इन दोनों रूपों की ओर रही। कभी-कभी तो बाल हृदय की कोमल भावना दोनों ही रूपों के आकर्षण से चिंतित हो जाती थी । प्रेम के पंथ में एकनिष्ठता अपरिहार्य है और योग मार्ग में सर्वरूपों का समन्वय अनिवार्य है । अपने अन्तर में प्रेम और योग के सम्मिलित लक्षण कभी-कभी किशोर कपिल को द्विविधाग्रस्त भी कर जाते थे -

"तुम दोनों बुलाने आये हो
मैं किसके द्वार को जाऊँ
कर पकड़-पकड़ कर खींचे
हा ! आफत पड़ घबराऊँ"

दोनों रूपों के एक साथ आमंत्रण की विवशता अंततः कृष्ण रूप की एकल स्वीकृति में खत्म हुयी। कपिल के होठ पर ‘राम’ रह गये और अंतःकरण में कृष्ण की मनोहारी छवि । पुनः प्रकट होने लगा ईश्वर के विविध अवतारों की अभिन्नता का रहस्य । एकबार आवास के निकट स्थित समाज पुस्तकालय पर ईसाई धर्म प्रचारकगण आये और उन्होंने ईश्वरीय वाणी की पुस्तक लोगों में बाँटी । सहज आस्तिक्य से प्रेरित होकर कपिल ने भी बाईबिल की एक प्रति ले ली । हाथ में आते ही उत्सुकतावश उसने ईसा के पवित्र वचनों का आद्योपांत अध्ययन प्रारंभ किया । स्वाध्याय के मध्य ही ईसा प्रकट हो गये । कपिल ने अनुभव किया कि सलीब पर लटके हुए यीशु का सम्पूर्ण भाव उनके शरीर में अवतरित हो रहा है । बहुत देर तक स्तब्ध हुए ईश- भाव से भावित रहा कपिल और पुनः अपने और ईसा के अटूट संबंध के प्रति उसे कभी संदेह नहीं हुआ ।
कैशोर्य की उसी सुकुमार अवस्था में सत्य, अहिंसा, क्षमा, मैत्री, करूणा आदि सात्त्विक वृत्तियों का प्रस्फुटन हो गया था और ईश्वर-संपर्क से इन सद्वृत्तियों की लता और भी पुष्ट हो रही थी । सत्य एवं अहिंसादि पवित्र भाव के परिवर्तन हेतु सूक्ष्म शरीर से लाठी टेकते हुए महात्मा गाँधी अक्सर ही उपस्थित हो जाते थे । गाँधी के आने से पहले सूर्य का आगमन होता था और उस सूर्य में कपिल तिरंगा को लहराते भी देखता था ।
भगवान के सगुण रूप की पूजा, अर्चना, भाव एवं अनुभूति के रहते हुए भी, कपिल शुरू से ही साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के साँचें में नहीं ढल सका । ज्ञान और योग के संस्कार, गीता के पवित्र श्लोक से जीवन पाकर अन्तस में और अधिक मुखरित होने लगे थे। रूपविशेष कृष्ण के अरूप प्रकाश में उसे, सर्वभूत माला की तरह पिरोया हुआ प्रतीत होता था -

"राम बने दो आखरे अति छोटो ये लखात
यामे सृष्टि समाई है ‘कपिल’ विरला देख पात"

इस एकत्व के सनातन चिंतन में कट्टरता, धार्मिक उन्माद एवं एक इष्ट पर अति आग्रह के भाव को कोई स्थान नहीं मिला। शुरू से ही कपिल के हृदय में सभी धर्मों के प्रति समान श्रद्धा एवं विश्वास रहा और ज्ञान की नींव पर जमी आस्था कभी डिग नहीं सकी --

"एक ईश के नाम अनेकों
धर्म राह चौक अन्त एके
चराचर सब अंश उन्हीं के
भेदभाव मूरख मन टेके"

ऊपर प्रस्तुत अंश श्रीकपिल कानन आश्रम द्वारा प्रकाशित ग्रंथ पुष्प ' मांझी और झील ज् के अंश हैं । जो जिज्ञासुजन / पाठकवृन्द सम्पूर्ण ग्रंथ का आस्वादन करना चहतें हैं वो सम्पर्क करें । धन्यवाद ।

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